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Society

मानव समाज तो एक है लेकिन तीतर -बितर है और अपने -अपने फायदे के अनुसार बांटा गया है। 

सामाजिक समझ इतनी सिमित है की समाज एक है की समझ को समझना , हर के समझ की बात नहीं है की समाज एक है।

जब ये आसान सी बात को नहीं समझ पा रहे है की धर्म एक है और धार्मिक विचारधाराएँ अनेक है जो विश्व में विभिन्न नामों से प्रचलित है।

सभी धर्म - धर्म करते है लेकिन इतनी समझ भी नहीं की ये तो धार्मिक विचारधारा के लिए लड़े -मरे जा रहे है। 

सही बात तो यह सब को जीवन जीने के लिए आय का साधन चाहिए। गुमराहों को और गुमराह करना भी आय का साधन है चाहे धार्मिक विचारधारा/जातियता /क्षेत्रवाद /भाषावाद  आदि -आदि के  नाम पर हो।

जागना एक -एक को है तभी तो समाज एक है का भान हो सकता है।अभी, सभी ताक में बैठे है की कैसे दूसरे को चोट पहुचाये इस बात को भूले बैठे है की उनके द्वारा स्वीकार की गयी धार्मिक विचारधारा अहिंसा का पाठ पढ़ाती है। ऐसा कौन सा धर्मग्रन्थ है जो दूसरे के द्वारा विश्लेषित किया गया और समझ रहे है सही है बिना विचार के की सही या गलत। 

शब्द -शब्द का अर्थ अन्नंत होता है। किसी शब्द का विश्लेषण करना मात्र कल्पना और मन की बातो का प्रयास होता है। तथागत जब बोले तो उनके शिष्यों ने यह नहीं लिखा मैंने देखा , वो सुन रहे थे तो लिखा मैंने सुना और लिख दिया । क्योंकि अनुभव तो बुद्ध का है। वैसे ही किसी भी धार्मिक विचारधारा के सदग्रंथ का अनुयायी द्वारा शब्दों का अनुभव स्वयं से नहीं करेगा और सुनी - सुनाई पर पड़ा रहेगा तो ऐसे जनों को समझ में क्या आएगा की समाज एक है।

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